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भारत के इतिहास में जातिय पर चोट~~भारत में जाति रूपी बीमारी का ईलाज बहुत कम हुआ है और अब भी इससे लड़ने की जरुरत है। पहली बार इसका विरोध जैन और बौद्ध धर्म का विकास हे परन्तु जैन धर्म किसी एक जातिय तक सीमित रहने के कारण भारत में उतना फैल नहीं पाया और बुद्धिज्म भी भारत में अधिक समय तक टिका नहीं। बुद्धिज्म का विदेशो में ही प्रसार हुआ।इसका भारत में विकास नहीं होने का एक कारण यह भी था कि बुद्ध भिक्खु विलासिता का जीवन जीने लगे।
जाति पर दूसरी बार प्रहार भक्ति काल में 14-15वी शताब्दी में हुआ जब ईश्वर की भक्ति में लीन होकर नीची जाति के लोगो ने जनमानस को समझाया की ईश्वर एक हे और हम सब इंसान बराबर है।परंतु इसको भी धार्मिक प्रतिक बना दिया गया और संत शिरोमणि रैदास,साहेब कबीर संत तुकाराम; संत गाडगे,संत नामदेव को जातिय रूप में बाट कर अलग धर्म प्रतिक के रूप में पेश कर दिया गया जिससे जनमानस भी दूसरी जाति के संतो की बात को सुनने में अरुचि दिखाने लगे।जिससे इस आंदोलन का प्रभाव न के बराबर हो गया।
इतिहास में ये बदलाव परन्तु रुके नहीं अंग्रेजो ने सभी को सामान बनाने के लिए कुछ कानून बनाये और आरक्षण भी कमजोर सामाजिक स्थिति वाली जातियों को दिया। इसकी लड़ाई बाबा साहेब अम्बेडकर ने लड़ी।परन्तु अंगेजो की इस मदद का आधार मानवता नहीं थी बल्कि भारत में सामाजिक सत्त्ता प्राप्त करने की खोज थी।
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